ग़ालिब की शायरी कविताएं — Mirza Ghalib 7 Poems in Hindi

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Mirza Ghalib Poems in Hindi: आज के लेख में आप पढ़ने जा रहे है। Famous Poet Mirza Ghalib द्वारा लिखी ये हिंदी कविताएं (best hindi poems ) आपको ये कविताएं पसंद आएगी।

Mirza Ghalib Poems in Hindi
Mirza Ghalib Poems in Hindi



ग़ालिब की कविताएं — Mirza Ghalib Poems in Hindi

ज़हर-ए-ग़म कर चुका था मेरा काम | ग़ालिब

न होगा यक बयाबाँ माँदगी से ज़ौक़ कम मेरा
हुबाब-ए-मौज-ए-रफ़्तार है, नक़्श-ए-क़दम मेरा

मुहब्बत थी चमन से, लेकिन अब ये बेदिमाग़ी है
के मौज-ए-बू-ए-गुल से नाक में आता है दम मेरा




हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है| ग़ालिब

हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है

न शोले में ये करिश्मा न बर्क़ में ये अदा
कोई बताओ कि वो शोखे-तुंदख़ू क्या है

ये रश्क है कि वो होता है हमसुख़न हमसे
वरना ख़ौफ़-ए-बदामोज़ी-ए-अदू क्या है

चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन
हमारी ज़ेब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है

जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है

रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है

वो चीज़ जिसके लिये हमको हो बहिश्त अज़ीज़
सिवाए बादा-ए-गुल्फ़ाम-ए-मुश्कबू क्या है

पियूँ शराब अगर ख़ुम भी देख लूँ दो चार
ये शीशा-ओ-क़दह-ओ-कूज़ा-ओ-सुबू क्या है

रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी
तो किस उम्मीद पे कहिये के आरज़ू क्या है

बना है शह का मुसाहिब, फिरे है इतराता
वगर्ना शहर में ग़ालिब की आबरू क्या है




आ कि मेरी जान को क़रार नहीं है| ग़ालिब

आ कि मेरी जान को क़रार नहीं है
ताक़ते-बेदादे-इन्तज़ार नहीं है

देते हैं जन्नत हयात-ए-दहर के बदले
नश्शा बअन्दाज़-ए-ख़ुमार नहीं है

गिरिया निकाले है तेरी बज़्म से मुझ को
हाये! कि रोने पे इख़्तियार नहीं है

हम से अबस है गुमान-ए-रन्जिश-ए-ख़ातिर
ख़ाक में उश्शाक़ की ग़ुब्बार नहीं है

दिल से उठा लुत्फे-जल्वाहा-ए-म आनी
ग़ैर-ए-गुल आईना-ए-बहार नहीं है

क़त्ल का मेरे किया है अहद तो बारे
वाये! अगर अहद उस्तवार नहीं है

तू ने क़सम मैकशी की खाई है ग़ालिब
तेरी क़सम का कुछ ऐतबार नहीं है




फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया| ग़ालिब

फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया
दिल जिगर तश्ना-ए-फ़रियाद आया

दम लिया था न क़यामत ने हनोज़
फिर तेरा वक़्त-ए-सफ़र याद आया

सादगी हाये तमन्ना यानी
फिर वो नैइरंग-ए-नज़र याद आया

उज़्र-ए-वामाँदगी अए हस्रत-ए-दिल
नाला करता था जिगर याद आया

ज़िन्दगी यूँ भी गुज़र ही जाती
क्यों तेरा राहगुज़र याद आया

क्या ही रिज़वान से लड़ाई होगी
घर तेरा ख़ुल्‌द में गर याद आया

आह वो जुर्रत-ए-फ़रियाद कहाँ
दिल से तंग आके जिगर याद आया

फिर तेरे कूचे को जाता है ख़्याल
दिल-ए-ग़ुमगश्ता मगर याद आया

कोई वीरानी-सी-वीरानी है
दश्त को देख के घर याद आया

मैंने मजनूँ पे लड़कपन में असद
संग उठाया था के सर याद आया




बाद मरने के मेरे घर से यह सामाँ निकला | ग़ालिब

बूए-गुल, नाला-ए-दिल, दूदे चिराग़े महफ़िल
जो तेरी बज़्म से निकला सो परीशाँ निकला।

चन्द तसवीरें-बुताँ चन्द हसीनों के ख़ुतूत,
बाद मरने के मेरे घर से यह सामाँ निकला।




ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं | ग़ालिब

ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं
कभी सबा को, कभी नामाबर को देखते हैं

वो आए घर में हमारे, खुदा की क़ुदरत हैं!
कभी हम उमको, कभी अपने घर को देखते हैं

नज़र लगे न कहीं उसके दस्त-ओ-बाज़ू को
ये लोग क्यूँ मेरे ज़ख़्मे जिगर को देखते हैं

तेरे ज़वाहिरे तर्फ़े कुल को क्या देखें
हम औजे तअले लाल-ओ-गुहर को देखते हैं




कहते तो हो तुम सब कि बुत-ए-ग़ालिया-मू आए | ग़ालिब

कहते तो हो तुम सब कि बुत-ए-ग़ालिया-मू आए
यक मरतबा घबरा के कहो कोई कि वो आए

हूँ कशमकश-ए-नज़ा में हाँ जज़्ब-ए-मोहब्बत
कुछ कह न सकूँ पर वो मिरे पूछने को आए

है साइक़ा-ओ-शोला-ओ-सीमाब का आलम
आना ही समझ में मिरी आता नहीं गो आए

ज़ाहिर है कि घबरा के न भागेंगे नकीरें
हां मुंह से मगर बादा-ए-दोशीना की बो आए

जललाद से डरते हैं न वाइज़ से झगड़ते
हम समझे हुए हैं उसे जिस भेस में जो आए

हां अहल-ए-तलब कौन सुने ताना-ए-ना-याफ़त
देखा कि वह मिलता नहीं अपने ही को खो आए

अपना नहीं वह शेवह कि आराम से बैठें
उस दर पह नहीं बार तो कबे ही को हो आए

की हम-नफ़सों ने असर-ए गिरयह में तक़रीर
अचछे रहे आप उस से मगर मुझ को डुबो आए

उस अनजुमन-ए नाज़ की कया बात है ग़ालिब
हम भी गए वां और तिरी तक़दीर को रो आए


Image Credit:- Canva


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