मुंशी प्रेमचंद की कहानी: अनुभव | Premchand Story in Hindi

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Munshi Premchand ki Kahani: मुंशी प्रेमचंद एक प्रसिद्ध हिंदी लेखक थे जिन्होंने ‘प्रेमचंद युग’ के दौरान कहानियाँ और उपन्यास लिखे। प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई, 1880 को बनारस में हुआ था और उनकी रचनाएँ हिंदी और उर्दू दोनों में पढ़ी जा सकती हैं। उनकी कहानियाँ अक्सर जातिगत भेदभाव और गरीबी जैसे सामाजिक मुद्दों के बारे में होती हैं, और वे बच्चों और वयस्कों में समान रूप से बहुत लोकप्रिय हैं।


Premchand Story in Hindi | Munshi Premchand ki Kahani Hindi Mein

Munshi Premchand ki Kahani


प्रियतम को एक वर्ष की सजा हो गयी। और अपराध केवल इतना था, कि तीन दिन पहले जेठ की तपती दोपहरी में उन्होंने राष्ट्र के कई सेवकों का शर्बत-पान से सत्कार किया था। मैं उस वक्त अदालत में खड़ी थी। कमरे के बाहर सारे नगर की राजनैतिक चेतना किसी बंदी पशु की भाँति खड़ी चीत्कार कर रही थी।

मेरे प्राणधन हथकड़ियों से जकड़े हुए लाये गये। चारों ओर सन्नाटा छा गया। मेरे भीतर हाहाकार मचा हुआ था, मानो प्राण पिघला जा रहा हो। आवेश की लहरें-सी उठ-उठकर समस्त शरीर को रोमांचित किये देती थीं। ओह इतना गर्व मुझे कभी नहीं हुआ था। वह अदालत, कुरसी पर बैठा हुआ अंग्रेज अफसर, लाल जरीदार पगड़ियाँ बांधे हुए पुलिस के कर्मचारी सब मेरी आँखो में तुच्छ जान पड़ते थे।

बार-बार जी में आता था, दौड़कर जीवन-धन के चरणों में लिपट जाऊँ और उसी दशा में प्राण त्याग दूँ। कितनी शांत, अविचलित, तेज और स्वाभिमान से प्रदीप्त मूर्ति थी। ग्लानि, विषाद या शोक की छाया भी न थी। नहीं, उन ओठों पर एक स्फूर्ति से भरी हुई मनोहारिणी, ओजस्वी मुस्कान थी।

इस अपराध के लिए एक वर्ष का कठिन कारावास! वाह रे न्याय! तेरी बलिहारी है! मैं ऐसे हजार अपराध करने को तैयार थी। प्राणनाथ ने चलते समय एक बार मेरी ओर देखा, कुछ मुस्कराये, फिर उनकी मुद्रा कठोर हो गयी। अदालत से लौटकर मैंने पाँच रुपये की मिठाई मँगवायी और स्वयंसेवकों को बुलाकर खिलाया। और संध्या समय मैं पहली बार कांग्रेस के जलसे में शरीक हुई- शरीक ही नहीं हुई, मंच पर जाकर बोली, और सत्याग्रह की प्रतिज्ञा ले ली।

मेरी आत्मा में इतनी शक्ति कहाँ से आ गयी, नहीं कह सकती। सर्वस्व लुट जाने के बाद फिर किसकी शंका और किसका डर। विधाता का कठोर-से-कठोर आघात भी अब मेरा क्या अहित कर सकता था?

दूसरे दिन मैंने दो तार दिये। एक पिताजी को, दूसरा ससुरजी को। ससुरजी पेंशन पाते थे। पिताजी जंगल के महकमे में अच्छे पद पर थे; पर सारा दिन गुजर गया, तार का जवाब नहीं आया !

दूसरे दिन भी कोई जवाब नहीं। तीसरे दिन दोनों महाशयों के पत्र आये। दोनों जामे से बाहर थे। ससुरजी ने लिखा – आशा थी, तुम लोग बुढ़ापे में मेरा पालन करोगे। तुमने उस आशा पर पानी फेर दिया। क्या अब चाहती हो, मैं भिक्षा माँगूँ। मैं सरकार से पेंशन पाता हूँ। तुम्हें आश्रय देकर मैं अपनी पेंशन से हाथ नहीं धो सकता।

पिताजी के शब्द इतने कठोर न थे, पर भाव लगभग ऐसा ही था। इसी साल उन्हें ग्रेड मिलने वाला था। वह मुझे बुलायेंगे, तो संभव है, ग्रेड से वंचित होना पड़े। हाँ, वह मेरी सहायता मौखिक रूप से करने को तैयार थे।

मैंने दोनों पत्र फाड़कर फेंक दिये और उन्हें कोई पत्र न लिखा। हा स्वार्थ! तेरी माया कितनी प्रबल है! अपना ही पिता, केवल स्वार्थ में बाधा पड़ने के भय से, लड़की की तरफ से इतना निर्दय हो जाय। अपना ससुर अपनी बहू की ओर से इतना उदासीन हो जाय! मगर अभी मेरी उम्र ही क्या है! अभी तो सारी दुनिया देखने को पड़ी है।

अब तक मैं अपने विषय में निश्चिंत थी; लेकिन अब यह नई चिंता सवार हुई। इस निर्जन घर में, निराधार, निराश्रय कैसे रहूँगी। मगर जाऊँगी कहाँ? अगर मैं मर्द होती, तो कांग्रेस के आश्रम में चली जाती, या कोई मजूरी कर लेती। मेरे पैरों में नारीत्व की बेड़ियाँ पड़ी हुई थीं। अपनी रक्षा की इतनी चिंता न थी, जितनी अपने नारीत्व की रक्षा की। अपनी जान की फिक्र न थी; पर नारीत्व की ओर किसी की आँख भी न उठनी चाहिए।

किसी की आहट पाकर मैंने नीचे देखा। दो आदमी खड़े थे। जी में आया, पूछूँ तुम कौन हो। यहाँ क्यों खड़े हो? मगर फिर खयाल आया, मुझे यह पूछने का क्या हक? आम रास्ता है। जिसका जी चाहे खड़ा हो।

पर मुझे खटका हो गया। उस शंका को किसी तरह दिल से न निकाल सकती थी। वह एक चिनगारी की भाँति हृदय के अंदर समा गयी थी।

गरमी से देह फुँकी जाती थी; पर मैंने कमरे का द्वार भीतर से बंद कर लिया। घर में एक बड़ा-सा चाकू था। उसे निकालकर सिरहाने रख लिया। वह शंका सामने बैठी घूरती हुई मालूम होती थी।
किसी ने पुकारा। मेरे रोयें खड़े हो गये। मैंने द्वार से कान लगाया। कोई मेरी कुंडी खटखटा रहा था। कलेजा धक्-धक् करने लगा। वही दोनों बदमाश होंगे। क्यों कुंडी खटखटा रहे हैं? मुझसे क्या काम है? मुझे झुँझलाहट आ गयी। मैंने द्वार खोला और छज्जे पर खड़ी होकर जोर से बोली, कौन कुंडी खड़खड़ा रहा है?

आवाज सुनकर मेरी शंका शांत हो गयी। कितना ढाढ़स हो गया! यह बाबू ज्ञानचंद थे। मेरे पति के मित्रों में इनसे ज्यादा सज्जन दूसरा नहीं है। मैंने नीचे जाकर द्वार खोल दिया। देखा तो एक स्त्री भी थी। वह मिसेज ज्ञानचंद थीं। यह मुझसे बड़ी थीं। पहले-पहल मेरे घर आयी थीं। मैंने उनके चरण स्पर्श किये। हमारे वहाँ मित्रता मर्दों ही तक रहती है। औरतों तक नहीं जाने पाती।

दोनों जने ऊपर आये! ज्ञान बाबू एक स्कूल में मास्टर हैं। बड़े ही उदार, विद्वान, निष्कपट, पर आज मुझे मालूम हुआ कि उनकी पथ-प्रदर्शिका उनकी स्त्री हैं। वह दोहरे बदन की, प्रतिभाशाली महिला थीं।

चेहरे पर ऐसा रोब था, मानो कोई रानी हों। सिर से पाँव तक गहनों से लदी हुई। मुख सुंदर न होने पर भी आकर्षक था। शायद मैं उन्हें कहीं और देखती; तो मुँह फेर लेती। गर्व की सजीव प्रतिमा थीं; वह बाहर जितनी कठोर, भीतर उतनी ही दयालु।

‘घर कोई पत्र लिखा?’ यह प्रश्न उन्होंने कुछ हिचकते हुए किया।

मैंने कहा- हाँ, लिखा था।

‘कोई लेने आ रहा है?’

‘जी नहीं। न पिताजी अपने पास रखना चाहते हैं, न ससुरजी।’

‘तो फिर?’

‘फिर क्या, अभी तो यहीं पड़ी हूँ।’

‘तो मेरे घर क्यों नहीं चलतीं? अकेले तो इस घर में मैं न रहने दूँगी।’

‘खुफिया के दो आदमी इस वक्त भी डटे हुए हैं।’

‘मैं पहले ही समझ गयी थी, दोनों खुफिया के आदमी होंगे।’

ज्ञान बाबू ने पत्नी की ओर देखकर, मानो उसकी आज्ञा से कहा- तो मैं जाकर ताँगा लाऊँ?

देवीजी ने इस तरह देखा, मानो कह रही हों, क्या अभी तुम यहीं खड़े हो?

ज्ञान बाबू चुपके से द्वार की ओर चले।

‘ठहरो’- देवीजी बोलीं- कितने ताँगे लाओगे?
ज्ञान बाबू जी घबरा कर बोले- “कितने?”

ज्ञान बाबू जी की पत्नी- “हां कितने, एक तांगे पर सिर्फ तीन लोग ही बैठ सकते हैं, बाकी के सामान बिस्तर, बर्तन आदि कैसे जाएंगे ?”

ज्ञान बाबू जी- “फिर दो ले आऊं।”

ज्ञान बाबू जी की पत्नी- “एक तांगे पर कितना सामान जाएगा ?”

ज्ञान बाबू जी- “फिर ठीक है तीन ले आता हूं?”

ज्ञान बाबू जी की पत्नी- “हां, तो जाओ भी अब इतनी देर क्यों कर रहे हो।”

मैं कुछ कहने न पायी थी, कि ज्ञान बाबू चल दिये। मैंने सकुचाते हुए कहा- बहन, तुम्हें मेरे जाने से कष्ट होगा और…

देवीजी ने तीक्ष्ण स्वर में कहा- हाँ, होगा तो अवश्य। तुम दोनों जून में दो-तीन पाव भर आटा खाओगी, कमरे के एक कोने में अड्डा जमा लोगी, सिर में आने का तेल डालोगी। यह क्या थोड़ा कष्ट है!’

मैंने झेंपते हुए कहा- आप तो बना रही हैं।’

देवीजी ने सहृदय भाव से मेरा कंधा पकड़कर कहा- जब तुम्हारे बाबूजी, लौट आवें; तो मुझे भी अपने घर मेहमान रख लेना। मेरा घाटा पूरा हो जायगा। अब तो राजी हुई। चलो अब सामान बांधो। खाट-वाट कल मँगवा लेंगे।’

मैंने ऐसी सहृदय, उदार, मीठी बातें करने वाली स्त्री नहीं देखी। मैं उनकी छोटी बहन होती, तो भी शायद इससे अच्छी तरह न रखतीं। चिंता या क्रोध को तो जैसे उन्होंने जीत लिया हो। सदैव उनके मुख से मधुर वाणी निकलती थी जैसे मानों सरस्वती का वास हो।

उनकी कोई संतान नहीं थी था, पर मैंने उन्हें कभी दुखी नहीं देखा। घर का काम वो स्वयं करती और बाहर के काम के लिए एक लड़का रख रखा था। इतना कम खाकर और इतनी मेहनत करके वह कैसे इतनी ह्रष्ट-पुष्ट थीं, मैं नहीं कह सकती। विश्राम तो जैसे उनके भाग्य में ही नहीं लिखा था। जेठ की दुपहरी में भी न लेटती थीं! हाँ, मुझे कुछ न करने देतीं, जब देखो कुछ खिलाने को सिर पर सवार रहती । मुझे यहाँ बस यही एक तकलीफ थी।

मगर आठ ही दिन गुजरे थे कि एक दिन मैंने उन्हीं दोनों खुफियों को नीचे बैठा देखा। मेरा माथा ठनका। यह अभागे यहाँ भी मेरे पीछे पड़े हैं। मैंने तुरंत बहनजी से कहा- वे दोनों बदमाश यहाँ भी मँडरा रहे हैं।

उन्होंने हिकारत से कहा- कुत्ते हैं। फिरने दो।

मैं चिंतित होकर बोली- कोई स्वाँग न खड़ा करें।

उसी बेपरवाही से बोलीं- भौंकने के सिवा और क्या कर सकते हैं?

मैंने कहा- काट भी तो सकते हैं।

हँसकर बोलीं- इसके डर से कोई भाग तो नहीं जाता न!’

मैं बार बार उनके बारे में सोचती। बार-बार छज्जे पर जाकर उन्हें टहलते देख आती। यह सब मेरे पीछे पड़े हुए हैं। आखिर मैं नौकरशाही का क्या बिगाड़ सकती हूँ। मेरी सामर्थ्य ही क्या है? क्या यह सब इस तरह से मुझे यहाँ से भगाने पर तुले हैं। इससे उन्हें क्या मिलेगा? यही तो कि मैं मारी-मारी फिरूँ! कितनी नीची तबियत है?

एक हफ्ता और गुजर गया। खुफिया ने पिंड न छोड़ा। मेरे प्राण सूखते जाते थे। ऐसी दशा में यहाँ रहना मुझे अनुचित मालूम होता था; पर देवीजी से कुछ कह न सकती थी।

एक दिन शाम को ज्ञान बाबू आये, तो घबराये हुए थे। मैं बरामदे में थी। परवल छील रही थी। ज्ञान बाबू ने कमरे में जाकर देवीजी को इशारे से बुलाया।

फिर भी ज्ञान जी की पत्नी ने वहीं बैठे हुए कहा कि बात क्या है, बताते क्यों नहीं।

ज्ञान जी ने कहा- पहले इधर आओ।

इतने में मैं खुद वहां से दूर जाने लगी, तभी ज्ञान जी की पत्नी ने मुझे हाथ पकड़कर रोक लिया। मैं कोशिश करके भी उनसे हाथ नहीं छुड़ा पाई। ज्ञान जी मेरे सामने वो बात नहीं कहना चाहते थें, लेकिन उनसे इंतजार भी नहीं हो रहा था। उन्होने तुरंत कहा आज मेरे व प्रधानाचार्य के बीच झगड़ा हो गया।

पत्नी ने बड़े ही बनावटी शब्दों में कहा- “क्या सच में, तब तो तुमने उन्हें खूब पीटा होगा ?”

ज्ञान जी- “तुम्हें मजाक सूझ रहा है, यहां मेरी नौकरी आफत में है।”

पत्नी- “जब इतना ही डर था, तो झगड़े क्यों?”

ज्ञान जी- “मैं नहीं झगड़ा, उसने मुझे बुलाकर खूब सुनाया।”

पत्नी- “बिना मतलब के?”

ज्ञान जी- “अब क्या बताऊं।”

पत्नी- “मैने कई बार बोला है ये मेरी बहन है। तुम इसके सामने सबकुछ बोल सकते हो।”

ज्ञान जी- “अच्छा, पर जब बात इनके बारे में हो तो ?”

पत्नी ने कहा- “मैं समझ गई, खुफियों से तुम्हारी अनबन हुई होगी और पुलिस ने तुम्हारे स्कूल में शिकायत कर दी होगी।”

ज्ञान जी सोचते हुए- “नहीं ऐसा नहीं है, लेकिन पुलिस ने हाकिम जिला के यहां शिकायत की और उसने प्रधानाचार्य से। प्रधानाचार्य ने मुझसे जवाब मांगा है।”

पत्नी ने कहा- “प्रधानाचार्य ने कहा होगा कि उस महिला को अपने घर से बाहर करो।”

ज्ञान जी- “हां, कुछ ऐसा ही समझ लो।”

पत्नी- “फिर तुमने क्या कहा?”

ज्ञान जी- “फिलहाल मैने कुछ नहीं कहा है, वहां कुछ समझ नहीं आ रहा था।”

पत्नी ने गुस्से में कहा- “जब तुम इसका जवाब जानते हो फिर सोचना कैसा?”

ज्ञान जी सहम कर बोले- “मैं ऐसे अचानक कैसे बोल देता।”

पत्नी गुस्से में बोली- “जाओ अभी जाकर अपने प्रधानाचार्य से कहो कि मैं उसे नहीं निकाल सकता और अगर न माने, तो नौकरी से इस्तीफा देकर घर आना। अभी तुरंत जाओ।”

मैं अपने आंसू नहीं रोक पाई, रोते हुए मैने कहा बहन ये सब क्यों…

ज्ञान जी की पत्नी ने मुझे डांटा और कहा- “तुम बिल्कुल चुप रहो, नहीं तो कान पकड़ लूंगी। तुम क्यों बीच में बोलती हो। हम जब भी रहेंगे, तो एक साथ ही रहेंगे। अगर जिएंगे तो साथ, मरेंगे तो भी साथ।”

पति को सुनाते हुए कहा- “इनकी आधी उम्र बीत गई, लेकिन इन्होने कुछ नहीं सीखा। अब खड़े क्यों हो, तुम्हें बोलने में डर लग रहा तो मैं जाकर कह दूं।”

ज्ञान जी ने गुस्सा होकर बोला- “कल जाकर बोल दूंगा, इस समय पता नहीं वो होगा भी या नहीं।”

इधर पूरी रात मैं नहीं सो पाई, पिता व ससुरजी जिसे दोनों ने ठुकरा दिया हो। उस दासी को इन्होने इतनी इज्जत दी। ज्ञान जी की पत्नी सच में किसी देवी से कम नहीं है।

अगले दिन ज्ञान जी निकल रहे तभी पत्नी ने कहा- “जवाब देकर आना।”

ज्ञान जी के जाने के बाद मैनें कहा- “बहन तुम ये सही नहीं कर रही हो, मुझे ये बर्दाश्त नहीं हो रहा कि मेरी वजह से तुम्हारे परिवार पर परेशानी आए।”

ज्ञान जी की पत्नी ने हंसते हुए कहा- “हो गया या और कुछ बोलना है।”

ज्ञान जी की पत्नी ने पूछा कि अच्छा ये बता कि तुम्हारे स्वामी आज जेल की सजा क्यों काट रहे ? बस इसलिए क्योंकि वो राष्ट्रीय सेवकों की सेवा कर रहे थे। आखिर राष्ट्र की सेवा करने वाले वो लोग कौन हैं? ये हमारे लिए क्यों संघर्ष कर रहे हैं? इनका भी तो परिवार होगा, कारोबार होगा पर ये सब त्यागकर वो हमारे लिए लड़ रहे हैं। ऐसे लोगों की सेवा कर जेल जाने वाले तुम्हारे पति भी किसी वीर से कम नहीं। ऐसे वीर की पत्नी के दर्शन मात्र से ही आत्मा तृप्त हो जाएगी। फिर मैं नहीं तू मुझ पर एहसान कर रही है।

मैं चुपचाप उनकी बात सुनती रही और कुछ नहीं बोल पाई। संध्या हो गई ज्ञान जी घर आए, तो उनके चेहरे पर अलग सी चमक नजर आ रही थी।

पत्नी ने पूछा- “हारकर आए या जीतकर?”

ज्ञान जी ने स्वाभिमान के साथ कहा- “जीतकर!” जब मैनें नौकरी से इस्तीफा दिया, तो उसका दिमाग चकरा गया। तभी उसने हाकिम जिला के पास जाकर बात की। वापस आकर उसने बोला आप राजनीतिक जलसों में क्यों नही शरीक होते।

मैंने बोला- “ना भाई मैं कभी न जाऊं।”

उसने पूछा- “क्या आप कांग्रेस के सदस्य हैं?”

मैंने बोला- “नहीं, और न ही किसी सदस्य से मेरा कोई संबंध है।”

उसने पूछा- “क्या कांग्रेस के फंड में आप दान करते हैं?”

मैनें बोला- “ना भाई फूटी कौड़ी भी नहीं।”

उसने कहा- “तो ठीक है मैंने आपका इस्तीफा अस्वीकार कर दिया।”

पत्नी ने ये सुनते ही ज्ञान जी को गले से लगा लिया।


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By:- Vandana Sharma
Image credit:- Canva


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