Mahabharat Katha: महाभारत के पाण्डवों और कौरवों के जन्म की कहानी 

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एक बार राजा पांडु अपनी दोनों पत्नियों कुंती और माद्री के साथ शिकार के लिए जंगल में गए। वहां उन्होंने हिरणों का एक जोड़ा देखा। पांडु ने तुरंत अपने बाण से हिरण को घायल कर दिया। मरते हुए हिरण ने पांडु को श्राप दिया, “हे राजन! इस संसार में तुम्हारे समान क्रूर मनुष्य कोई नहीं होगा। तुमने मुझे संभोग के दौरान तीर मारा है, इसलिए जब भी तुम संभोग करोगे, तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी।”

इस श्राप से पाण्डु बहुत दुःखी हुए और अपनी रानियों से बोले, “हे देवियों! अब मैं अपनी सारी इच्छाएँ त्याग कर इस वन में ही रहूँगा। तुम सब हस्तिनापुर लौट जाओ।” उनकी बातें सुनकर दोनों रानियाँ दुःखी हुईं और बोलीं, “नाथ! हम आपके बिना एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकतीं। कृपया हमें वन में अपने साथ रख लें।” पांडु ने उनके अनुरोध को स्वीकार कर लिया और उन्हें जंगल में अपने साथ रहने की अनुमति दे दी।

इसी बीच अमावस्या के दिन राजा पांडु ने महान ऋषियों को भगवान ब्रह्मा के दर्शन के लिए जाते देखा। उसने उन ऋषियों से उसे अपने साथ ले जाने का अनुरोध किया। उनके अनुरोध पर ऋषियों ने कहा, “राजन्, किसी भी निःसंतान मनुष्य को ब्रह्मलोक जाने का अधिकार नहीं है, इसलिये हम आपको अपने साथ ले जाने में असमर्थ हैं।”

ऋषियों की बात सुनकर पांडु ने अपनी पत्नी से कहा, “हे कुंती! मेरा जन्म लेना व्यर्थ हो रहा है क्योंकि निःसंतान व्यक्ति अपने पितरों के ऋण, ऋषियों के ऋण, देवताओं के ऋण और मनुष्यों के ऋण से छुटकारा नहीं पा सकता।” क्या तुम पुत्र प्राप्ति के लिये मेरी सहायता कर सकती हो?

“कुंती ने कहा, “हे आर्यपुत्र! ऋषि दुर्वासा ने मुझे ऐसा मन्त्र दिया है जिससे मैं किसी भी देवता का आह्वान करके इच्छित वस्तु प्राप्त कर सकती हूँ। आप कृपा करके आदेश करें कि मैं किस देवता को बुलाऊँ।”

इस पर पाण्डु ने धर्म को आमन्त्रित करने की आज्ञा दी। धर्म ने कुंती को एक पुत्र का आशीर्वाद दिया जिसका नाम युधिष्ठिर रखा गया। बाद में पाण्डु ने कुन्ती को पुनः दो बार वायुदेव तथा इन्द्रदेव को आमन्त्रित करने की आज्ञा दी।

भीम का जन्म वायुदेव से और अर्जुन का जन्म इंद्र से हुआ था। तदनन्तर पाण्डु की आज्ञा से कुन्ती ने माद्री को उस मन्त्र की दीक्षा दी। माद्री ने अश्वनीकुमारों को आमंत्रित किया और नकुल और सहदेव का जन्म हुआ।

एक दिन राजा पाण्डु माद्री के साथ वन में नदी के तट पर भ्रमण कर रहे थे। वातावरण बहुत खुशनुमा था और ठंडी, हल्की और सुगंधित हवा चल रही थी। सहसा वायु के झोंके से माद्री के वस्त्र उड़ गये।

इससे पांडु का मन बेचैन हो गया और वे संभोग क्रिया में प्रवृत्त होने ही वाले थे कि शाप के कारण उनकी मृत्यु हो गई। माद्री उनके साथ सती हो गई लेकिन कुंती अपने पुत्रों के पालन-पोषण के लिए हस्तिनापुर लौट आई।


उधर युधिष्ठिर के जन्म के बाद धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी के मन में भी एक पुत्री की इच्छा जगी। गांधारी को वेद व्यास जी से पुत्री होने का वरदान प्राप्त था।

जब गर्भधारण के दो वर्ष बाद भी पुत्र का जन्म नहीं हुआ तो गांधारी ने पेट में मुक्का मारकर अपना गर्भ गिरा दिया।

वेदव्यास ने योगबल से इस घटना को तुरंत समझ लिया। वह गांधारी के पास आये और बोले, “गांधारी, तुमने बहुत गलत किया है। मेरा दिया हुआ वरदान कभी ग़लत नहीं जाता। 

अब तुम जल्दी से सौ कुण्ड तैयार करो और उन्हें घी से भर दो।” गांधारी ने उनके आदेश के अनुसार सौ कुण्ड बनवाए। वेद व्यास ने गांधारी के गर्भ से निकले मांस पिंड पर अभिमन्त्रित  जल छिड़का, जिससे वह सौ टुकड़ों में टूट गया। जो अंगूठे की नोक के आकार थे। 

वेदव्यास ने उन टुकड़ों को गान्धारी के बनवाये सौ कुण्डों में रखवा दिया और उन कुण्डों को दो वर्ष पश्चात् खोलने का आदेश दे अपने आश्रम चले गये। 

दो वर्ष बाद सबसे पहले कुण्ड से दुर्योधन की उत्पत्ति हुई। दुर्योधन के जन्म के दिन ही कुन्ती का पुत्र भीम का भी जन्म हुआ। 

दुर्योधन जन्म लेते ही गधे की तरह रेंकने लगा। ज्योतिषियों से इसका लक्षण पूछे जाने पर उन लोगों ने धृतराष्ट्र को बताया, “राजन्! आपका यह पुत्र कुल का नाश करने वाला होगा। 

इसे त्याग देना ही उचित है। किन्तु पुत्रमोह के कारण धृतराष्ट्र उसका त्याग नहीं कर सके। फिर उन कुण्डों से धृतराष्ट्र के शेष 99 पुत्र एवं दुश्शला नामक एक कन्या का जन्म हुआ।

गान्धारी गर्भ के समय धृतराष्ट्र की सेवा में असमर्थ हो गयी थी अतएव उनकी सेवा के लिये एक दासी रखी गई। धृतराष्ट्र के सहवास से उस दासी का भी युयुत्स नामक एक पुत्र हुआ।

युवा होने पर सभी राजकुमारों का विवाह यथायोग्य कन्याओं से कर दिया गया। दुश्शला का विवाह जयद्रथ के साथ हुआ।


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